बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 1 Pradeep Shrivastava द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 1

भाग -१

काशी नगरी के पॉश एरिया में उनका अत्याधुनिक खूबसूरत मकान है। जिसके पोर्च में उन की बड़ी सी लग्जरी कार खड़ी होती है। एक छोटा गार्डेन नीचे है, तो उससे बड़ा पहले फ्लोर पर है। जहां वह कभी-कभी पति के साथ बैठकर अपने बिजनेस को और ऊचांइयों पर ले जाने की रणनीति बनाती हैं। तमाम फूलों, हरी-भरी घास, बोनशाई पेड़ों से भरपूर गार्डेन में वह रोज नहीं बैठ पातीं, क्योंकि व्यस्तता के कारण उनके पास समय नहीं होता। जो थोड़ा बहुत समय मिलता है, उसे वहअपने तीन बच्चों के साथ बिताती हैं । जो वास्तव में उनके नहीं हैं।

दोनों पति-पत्नी जितना समय एक दूसरे को देना चाहते हैं, वह नहीं दे पाते। उन दोनों के बीच प्यार का अथाह सागर हिलोरें मारता वैसे ही बढता जा रहा है, जैसे ग्लोबल वार्मिंग ध्रुवों की बर्फ पिघला-पिघला कर सागर के तल को बढ़ाये जा रही है। और ऐसे ही बढ़ते सागर तल के किनारे वो अपने होटल बिजनेस की नींव रख चुकी हैं। जिसका विस्तार पूरे देश में करने का उनका सपना है। लेकिन एक चीज है जो उन दोनों को भीतर ही भीतर कुतर रही है, वैसे ही चाल रही है जैसे इंसानों के कुकृत्य पृथ्वी को चाल रहे हैं। लेकिन उन्हें जो चाल रहा है वह उन दोनों का या किसी अन्य का भी कोई कुकृत्य नहीं है।

मेरे बहुत प्रयासों के बाद वह तैयार हुए कि मैं उनके जीवन को आधार बना कर यह उपन्यास लिख सकता हूं। हालांकि पति में मैं कुछ हिचकिचाहट देख रहा था। उनकी रॉलर कॉस्टर जैसी उतार-चढाव भरी ज़िन्दगी की जानकारी मुझे संयोगवश ही कहीं से मिली थी। उस संक्षिप्त सी जानकारी में ही ऐसी बातें थीं, जिसने मेरे लेखक हृदय को उद्वेलित कर दिया कि इस कैरेक्टर को और जानूं और समझूं, फिर लिखूं।

लिखूं अपने प्रिय मित्र, पाठकों के लिए एक ऐसा उपन्यास जो वो पढ़ना शुरू करें तो पूरा पढ़ कर उसे छोड़ न पाएं, बल्कि खोए रहें उसी उपन्यास में। बेनज़ीर को महसूस करते रहें अपने आसपास, अपने हर तरफ। मन में उठे इस भाव ने मेरा खाना-पीना, उठना-बैठना, घूमना-फिरना और रोज रात को सोने से पहले दो पैग ली जाने वाली व्हिसकी, सब पर अधिकार जमा लिया।

हर सांस में बेनज़ीर, उपन्यास, बेनज़ीर, उपन्यास रच-बस गया । मैं पूरी तन्मयता से लग गया कि बेनज़ीर मुझसे मुखातिब हो कह डालें अपना सब कुछ। स्याह-सफेद सब। पूरी निष्ठा समर्पण के साथ किया गया मेरा परिश्रम सफल हुआ।

जब वह मुखातिब हुईं तो कई बार मुझे बेहद कूपमंडूक लगीं, तो कई बार इतनी बिंदास कि उनके साहस को सैल्यूट करना पड़ा । यह बात आप बिल्कुल ना कहें कि कोई या तो कूपमंडूक हो सकता है या फिर बिंदास। दोनों एक साथ नहीं। लेकिन मेरा दावा है कि बेनज़ीर के बारे में पूरी बातें जानकर आप मेरी बात से पूर्णत: सहमत हो जाएंगे । उन्होंने अपने जीवन में आगे बढ़ने के लिए जहां अपने नजदीक खींची गईं दिवारों को एकदम तोड़ कर गिरा दिया, समतल कर दिया या फिर उसे लांघ गईं, वहीं वह अपने लिए अपने हिसाब की बाऊंड्री बना भी लेती हैं या फिर बिना बाऊंड्री के ही अपनी दुनिया बनाती हैं ।

लम्बे समय के बाद जब उन्होंने मन से सहयोग शुरू किया तो यह उपन्यास आकार लेने लगा। शहद सी मीठी आवाज में अपनी बहुत ही हृदयस्पर्शी बातें उन्होंने बतानी प्रारम्भ कीं। अपने खूबसूरत हैंगिंग गार्डेन में, जब पहली बैठक में उन्होंने चर्चा शुरू की, थी तो सर्दी का मौसम छोड़ कर जा रहा था। रविवार का दिन था। हरी घास पर बैंत की स्टाइलिश चार कुर्सियां पड़ीं थीं। उसी में से एक पर वह बैठी थीं, सामने वाली पर मैं। बीच में शीशे की टेबल थी, जिस पर मैंने अपने दो मोबाइल रखे थे बातचीत रिकॉर्ड करने के लिए। बेनज़ीर ने हल्के नीले रंग की सलवार और गुलाबी कुर्ता पहना हुआ था। ड्रेस की कटिंग और डिजाइन बहुत फैंसी और बोल्ड थी। मैंने जींस और डेनिम शर्ट पहनी थी।

वहां पहुंचने से पहले मैंने खुद को अच्छे ढंग से तैयार किया था। एक काफी महंगा विदेशी सेंट भी लगाया था। बात की शुरुआत में उन्होंने कहा, 'आखिर आप अपनी जिद पूरी कर ही ले रहे हैं। मेरे जीवन पर किताब भी लिखी जा सकती है, कभी सोचा भी नहीं था। खैर आपने कहा कि जो कुछ बचपन से अब-तक याद है वो बता दूं। याद तो मुझे इतना है कि शुरू कहां से करूं, यह मुझे बहुत समय तक सोचना पड़ा।

क्या है कि मैं अपनी कोई भी बात अम्मी-अब्बू को पता नहीं ठीक से समझा नहीं पाती थी या फिर वो लोग ऐसे थे कि समझ नहीं पाते थे। उन्हें छोटी सी छोटी बात समझाना मेरे लिए नाकों-चने चबाने से कम नहीं होता था। जबकि उनके अलावा घर या बाहर कहीं भी मुझे अपनी बात कहने या किसी को भी कन्वींस करने में ज्यादा दिक्कत नहीं होती। उनकी पिछली बातों को ध्यान में रखते हुए, यह भी नहीं कह सकती कि मैंने जब उन्हें कुछ कहने-सुनने समझाने की कोशिश शुरू की थी, तब-तक उन दोनों की उम्र हो गई थी। इसलिए उन्हें कुछ भी समझाना आसान नहीं था।

वो क्या कहते हैं कि साठ के बाद सठिया जाते हैं और वह लोग तो पैंसठ से ऊपर हो रहे थे। असल में अम्मी-अब्बू दोनों शुरू से ही ऐसे ही थे। कम से कम अपनी याददाश्त में बचपन से उन्हें ऐसे ही देखती आ रही थी। हां दस-बारह साल पहले तक अम्मी के साथ यह समस्या नहीं थी। तब दोनों छोटी अम्मी साथ रहती थीं। अब्बू से अम्मी का छत्तीस नहीं बहत्तर का आंकड़ा रहता था। महीनों हो जाता था, वह एक दूसरे को देखते भी नहीं थे। अम्मी उनकी आहट मिलते ही अपने कमरे में खुद को छिपा लेती थीं कि, कहीं अब्बू से सामना ना हो जाए। क्योंकि अब्बू सामना होने पर कुछ ना कुछ तीखा जरूर बोलते थे और अम्मी अपना आपा खो बैठती थीं। सारी लानत-मलामत उन पर भेजती हुई चीखती-चिल्लाती धरती आसमान एक कर देती थीं। और तब अब्बू की तरफ से दोनों छोटी अम्मियां भी मैदान में कूद पड़ती थीं। मगर अम्मी की आक्रामकता के आगे वह दोनों कमजोर पड़ जाती थीं। उन्हें अपने कमरों में दुबक जाना पड़ता था। कई बार तो अम्मी के हाथ उस समय जो भी सामान लग जाता उसी से उन दोनों अम्मियों को मारने के लिए दौड़ पड़तीं थीं।

एक बार तो तीसरी वाली अम्मी को चाय वाली भगोनियाँ जिसमें हैंडल लगा हुआ था, उसी से मार-मार कर लहूलुहान कर दिया था। बीच वाली आईं तीसरी वाली को बचाने तो वह भी बुरी तरह मार खा गईं। उनकी गोद से उनकी साल भर की बच्ची यानी मेरी सौतेली बहन गिरते-गिरते बची। यह तो अल्लाह का करम था कि ऐन वक्त पर आकर अब्बू ने दोनों को बचा लिया था, नहीं तो इनमें से किसी की जान भी जा सकती थी।

दूसरी वाली फिर भी बेहोश हो गई थीं। तब वह करीब तीन महीने की गर्भवती थीं। उनकी वह तीसरी संतान थी। मुझे आज भी पूरा विश्वास है कि, तब अब्बू भी अम्मी की आक्रामकता से डरते थे, क्योंकि मेरी सौतेली अम्मियों पर आए दिन हाथ उठाने वाले अब्बू मेरी अम्मी पर किच-किचा कर रह जाते थे, लेकिन उन पर हाथ नहीं उठाते थे।

कई बार तो मैंने साफ-साफ देखा कि वह उठा हुआ हाथ भी वापस खींच लेते थे। अम्मी से इतना दबने का या उनसे डरने का मैं जो एकमात्र कारण मानती हूं वह यह कि, अम्मी मकान की मालकिन थीं। यही एकमात्र कारण था जिससे अब्बू अम्मी के ऊपर उस तरह हावी नहीं होते थे, जिस तरह बाकी तीन अम्मियों पर होते थे।

वह मकान हमारे नाना ने हमारी अम्मी के नाम कर दिया था। बकायदा उनके नाम रजिस्ट्री भी की थी। जब नाना-नानी इंतकाल हुआ, तब मकान ज्यादा बड़ा नहीं था। अम्मी कई भाई-बहनों की अकाल मृत्यु के बाद अकेली ही बची थीं। नाना-नानी उनका निकाह जल्द से जल्द करके अपनी तरफ से निश्चिंत हो जाना चाहते थे।

नाना ने चौदह साल की उम्र में ही अम्मी के निकाह की तैयारी शुरू कर दी थी। लेकिन टीवी की बीमारी ने अचानक ही नाना को छीन लिया। तब मकान में तीन कमरे ही हुआ करते थे। नाना के साथ ही इनकम के सारे रास्ते भी बंद हो गए तो नानी, अम्मी को खाने-पीने के लाले पड़ गए। आखिर नानी ने एक कमरे में अपनी सारी गृहस्थी समेटी और दो कमरे किराए पर दे दिए। इससे दोनों को दो जून की रोटी का इंतजाम हो गया। नानी चार बच्चों और फिर पति की मौत के गम से बुरी तरह टूटतीं जा रही थीं।

लेकिन रोटी से ज्यादा चिंता उन्हें बेटी यानी अम्मी के निकाह की थी। लाख कोशिश उन्होंने कर डाली लेकिन नानी अम्मी का निकाह नहीं कर पाईं। तीन साल निकल गए। एक जगह तो निकाह के ऐन बारात आने वाले दिन ही रिश्ता टूट गया। नानी चार बच्चों और पति की मौत का गम तो सह ले रही थीं, लेकिन इससे उनको इतना सदमा लगा कि कुछ ही महीनों में चल बसीं

अम्मी बताती थीं कि नानी के इंतकाल से वह गहरे सदमे में आ गईं । कैसे जिएं, क्या करें उन्हें कुछ समझ ही नहीं आ रहा था। मगर जीवन जीने का जज्बा बना रहा तो उन्होंने उनके निकाह के लिए जो गहने थे उसे बेच दिया। उससे मिले पैसे और निकाह के लिए जो पैसे थे वह सब मिलाकर, खींचतान कर तीन कमरे और बनवाए जिससे कि और किराएदार रख सकें। इनकम को और बढ़ाया जा सके। साथ ही वह अपनी चिकनकारी के हुनर का भी इस्तेमाल करने लगीं । लखनऊ में चौक के पास एक दुकान से कपड़े ले आतीं और कढाई करके दे आतीं। उनका यही क्रम चल निकला।

अब्बू उसी दुकान से बने हुए कपड़े थोक में ले जाते थे। वहीं अम्मी अब्बू की मुलाकात हुई, फिर डेढ साल बाद ही निकाह। अब्बू अम्मी के ही मकान में आकर साथ रहने लगे। मकान से किराएदार निकाल दिए गए। लेकिन पैसों की किल्लत हुई, तो कुछ दिन बाद फिर आधा मकान किराए पर दे दिया गया। फिर देखते-देखते अम्मी ने हम पांच भाई-बहनों को जन्म दिया। चौथी संतान के कुछ महीने बाद अम्मी को पता चला कि अब्बू तो पहले ही से शादीशुदा हैं, और दो बच्चे भी हैं जो अच्छे-खासे बड़े हो चुके हैं।